वो उन्नीस साल का किशोर, वो 'वायरल' उत्सव और वो सवाल जो हमसे पूछे जा रहे हैं: क्या संस्कृत विद्या की अंतिम यात्रा शुरू हो गई है?
एक गहरी पड़ताल: जब एक युवा देवव्रत की दुर्लभ उपलब्धि ने छुआ देश का दिल, तब क्यों डूब गए पुरोहित परिवारों के चेहरे? संस्कृत, वैदिक ज्ञान और गुरुकुल शिक्षा के भविष्य पर एक मार्मिक चिंतन।
वायरल चमक और एक अस्पष्ट सी उपलब्धि
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया के न्यूज़फीड एक नाम से रौशन हैं - देवव्रत महेश रेखे। एक उन्नीस वर्षीय किशोर, जिसने वैदिक ज्ञान की किसी गहन और दुर्लभ शाखा में महारत हासिल कर ली है। खबर आग की तरह फैली। देश के प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, बड़े-बड़े बुद्धिजीवी से लेकर आम गृहस्थ, सभी ने इस युवा प्रतिभा की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। फेसबुक, ट्विटर पर #देवव्रत के तहत करोड़ों पोस्ट लिखे गए, शुभकामनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। यह देखकर अच्छा लगा कि यह देश आज भी विद्वता का आदर करता है।
लेकिन, एक विचित्र विडंबना यह रही कि इतनी भव्य और व्यापक चर्चा के बीच, बहुत से लोगों को यह स्पष्ट ही नहीं हुआ कि आखिर उस किशोर ने क्या हासिल किया है। 'दण्डक्रम' जैसे शब्द सुनकर लोग हैरान थे। यह क्या है? यह क्यों इतना महत्वपूर्ण है? वेदों की अलग-अलग शाखाओं का भेद क्या है? इन सवालों के जवाब बहुत कम लोगों के पास थे। फिर भी, प्रशंसा की झड़ी लगी रही। यह एक अद्भुत घटना थी - एक ऐसी उपलब्धि जिसे समझे बिना ही पूरा देश उसे सलाम कर रहा था।
चमकती स्क्रीन और बुझते दीपक: संस्कृत शिक्षा का द्वंद्व
इस वायरल उत्सव के ठीक विपरीत, हमारे आस-पास एक कड़वी सच्चाई सदियों से चली आ रही है, जिसकी ओर मैंने अपने पिछले शब्दों में इशारा किया था। मैं अपने आस-पड़ोस में देखता हूँ। जिन परिवारों में पीढ़ियों से पुरोहित परंपरा रही है, जिनके घरों में वेदों के पाठ की गूंज सुनाई देती थी, उन्हीं परिवारों के बच्चे आज संस्कृत छोड़ रहे हैं। कुछ दिल्ली-मुंबई में पंद्रह-बीस हजार रुपए की नौकरी कर रहे हैं, कुछ प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर पढ़ा रहे हैं, लेकिन अपने पैतृक कर्म और विद्या से मुंह मोड़ रहे हैं।
उनके पास दर्जनों आपत्तियाँ और तर्क हैं - "भइया, संस्कृत पढ़कर क्या होगा? अब इतनी प्रतिष्ठा नहीं रही। लोग तो गालियां देते रहते हैं। पुरोहिती में आय भी कहाँ है?" इनमें से कुछ बातें सही भी हैं। पारंपरिक रूप से की जाने वाली पुरोहितकर्म में स्थिर आय का अभाव है। और गाली देने वाले, उपहास उड़ाने वाले लोग भी मौजूद हैं। लेकिन सवाल यह है - क्या इन्हीं कारणों से हम अपनी इस महान ज्ञान परंपरा को ही त्याग दें? क्या आर्थिक लाभ ही विद्या का एकमात्र मापदंड हो गया है?
सोशल मीडिया की दोहरी दुनिया: नफरत का जहर और श्रद्धा का अमृत
इस पूरे प्रसंग ने हमारे डिजिटल समाज के एक चौंकाने वाले चरित्र को उजागर किया है। एक तरफ तो करोड़ों लोगों ने एक युवा विद्वान के प्रति श्रद्धा और आदर से भरी पोस्ट लिखीं। दूसरी ओर, एक सुनियोजित, विषैला वर्ग तैयार बैठा है, जिसका एकमात्र एजेंडा है - तोड़ना, फूहड़ गालियाँ देना, उपहास उड़ाना और इस पूरी सांस्कृतिक विरासत को 'अप्रासंगिक' सिद्ध करना। ये वे लोग हैं जो चाहते हैं कि संस्कृत समाप्त हो जाए, वेद पढ़ने वाले समाप्त हो जाएं, धर्म समाप्त हो जाए।
लेकिन हमें एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए: ये नफरती टिप्पणियाँ इस मिट्टी की आवाज नहीं हैं। ये एक सीमित, पर संगठित एजेंडे की आवाज हैं। असली भारत, जो गाँवों-कस्बों में, शहरों के घरों में बसता है, वह आज भी प्रणाम करता है जब कोई विद्वान दिखाई देता है। संस्कृत इस देश की श्रद्धा है, उसकी आत्मा की भाषा है। इसमें निपुणता प्राप्त करने वालों को यह देश सदैव पूजता आया है और आगे भी पूजता रहेगा।
किशोरावस्था: समर्पण का वह अनमोल पल
देवव्रत की उम्र पर गौर करें - उन्नीस वर्ष। यह वह अवस्था है जब आज का औसत युवा कॉलेज की पढ़ाई, दोस्तों के साथ मस्ती, या भविष्य की चिंता में डूबा रहता है। इस उम्र में किसी का एक दुर्लभ, कठिन और प्रत्यक्ष लाभ से दूर, वैदिक ज्ञान के मार्ग पर चल पड़ना, अपने आप में एक आश्चर्यजनक और प्रेरणादायक घटना है। यह उस समाज के लिए एक जीवंत संदेश है जो हर युवा को इंजीनियर-डॉक्टर बनाने की अंधी दौड़ में शामिल है। यह बताता है कि ज्ञान के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना आज भी युवा मन में जीवित है, बस उसे पहचानने, प्रोत्साहित करने और एक सम्मानजनक मंच देने की आवश्यकता है।
उत्सव से आगे: भविष्य की राह क्या है?
देवव्रत की सफलता पर देश का उत्सव मनाना एक सुखद संकेत है। यह दर्शाता है कि समाज की चेतना अभी मरी नहीं है। लेकिन, यह उत्सव मनाने और हैशटैग लगाने भर से काम नहीं चलेगा। यदि हम चाहते हैं कि ऐसे हजारों देवव्रत इस देश में पैदा हों, तो हमें ठोस कदम उठाने होंगे:
- पारंपरिक विद्या और आधुनिक रोजगार का समन्वय: संस्कृत, वैदिक ज्योतिष, आयुर्वेद जैसे पारंपरिक ज्ञान के विद्वानों के लिए ऐसे रोजगार सृजित करने होंगे जहाँ उनके ज्ञान का सही मूल्य मिले। डिजिटलीकरण, अनुवाद, शोध जैसे क्षेत्रों में अवसर बढ़ाने होंगे।
- गुरुकुल शिक्षा पद्धति का पुनरुद्धार: गुरुकुल परंपरा को आधुनिक शैक्षणिक ढाँचे में सम्मानपूर्वक जोड़ने के नवाचारी मॉडल विकसित करने होंगे।
- सामाजिक सम्मान में वृद्धि: समाज में यह भाव पैदा करना होगा कि ये ज्ञान परंपराएँ केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन जीने का विज्ञान हैं। इनके प्रति सम्मान का भाव पैदा करना होगा।
- युवा प्रोत्साहन योजनाएँ: देवव्रत जैसे युवाओं को मिले सम्मान को एक व्यवस्थित प्रोत्साहन योजना में बदलना होगा, ताकि और अधिक युवा ऐसे पथ पर चलने के लिए प्रेरित हों।
निष्कर्ष: एक दीपक से उजाला फैलाना
देवव्रत की कहानी एक दीपक की तरह है जिसने अचानक से चारों ओर प्रकाश फैला दिया। यह प्रकाश हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों की याद दिलाता है, हमारे गौरवशाली अतीत की ओर इशारा करता है। लेकिन, इस दीपक की लौ को बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सभी की है। क्या हम इस प्रकाश को केवल एक सोशल मीडिया का ट्रेंड बनकर रह जाने देंगे? या फिर इससे प्रेरणा लेकर उन हजारों अनाम 'देवव्रतों' को खोजेंगे, पहचानेंगे और उनके ज्ञान को फलने-फूलने का अवसर देंगे?
अंत में, हम सबकी यही कामना रहे कि विद्या की यह ज्योति अनवरत जलती रहे। हम सबका यही प्रयास रहे कि संस्कृत की यह धारा कभी सूखने न पाए। बहुत-बहुत बधाई देवव्रत को! नई पीढ़ी उनसे सीखे, उनका अनुसरण करे, इसी कामना के साथ...